Friday, June 24, 2011

नज़्म





बहुत दिन हो गये ...
खुद से लड़ झगड़ कर 
कोई नज्म लिखे हुए ...
यूँ तो रोज लिखती हूँ 
कुछ ना कुछ ....

या यूँ कहूँ के हर पल लिखती हूँ 
कोई ना कोई ख्याल 
लगा ही रहता है जो मुझे 
कभी अकेला नहीं होने देता ..

कभी उमंग बनकर ...
कभी उदासी बनकर 
कभी उम्मीद बनकर 
कभी मायूशी बनकर 
और मैं सहज लेती हूँ 
अपनी तहरीरों में ....

लेकिन एक नज्म अधूरी पड़ी है ..
एक रात जब 
खुद से अपनी नाराज़गी 
चाँद पर उतारने के लिए 
मैं देर रात तक जागी थी 

नींद से डबडबाई आँखों को 
 उन तारों के बीच 
कहीं छोड़ दिया था 
तमाम रात भटकने के लिए 

जिनसे पिघलती ओस से 
नम हो गयी थी बंजर जमीं 
और  मैं एक परिधि पर घूमती 
धरती के साथ  परिक्रमा पूरी 
करके खिड़की पर ठिठक कर 
रह गयी थे जैसे ..

बहुत से ख्याल आ आ कर चले गये 
नहीं सहेज पायी उन्हें 
नहीं गूंथ सकी उस लम्हा लम्हा 
बिखरती रात को एक नज्म में ..

आज फिर छटपटाती सी हवा 
के साथ ..इस चांदनी में कहीं 
खोकर एक नज्म कि किश्ते 
चुनना चाहती हूँ ..

अपनी  नींदों को आज
फिर सजा सुनानी है.....
ताकि कुछ  ख़्वाबों ख्यालों कि  
गुहार सुन सकूँ !!

'वन्दना '

11 comments:

  1. bhut hi sunder shabdo se saji rachna...

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  2. jaisa ki susma ne kaha bahut hi sundar suchmuch bahut hi sundar kavita hai "samrat bundelkhand"

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  3. अपनी नीदों को आज

    फिर सजा सुनानी है

    ताकि कुछ ख्वाबों ख्यालों की

    गुहार सुन सकूं !!

    .................व्याकुल भावों को कितनी हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति दी है

    .....................अति सुन्दर

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  4. बशुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  5. बहुत ही सार्थक और सशक्त अभिव्यक्ति।

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  6. AnonymousJune 24, 2011

    na likhne par bhi itna kuch aabahr

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  7. सुन्दर रचना ....

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  8. बहुत सुन्दर रचना।
    आपकी पुरानी नयी यादें यहाँ भी हैं .......कल ज़रा गौर फरमाइए
    नयी-पुरानी हलचल
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/

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  9. is nazm men bahut see baaten hain jo bahut acchi hain...thodi see dheeli hai..kasi ja sakti hai...fir kabhi dobara padhna shayad kuch edit kar sako... :)

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...