कैसा शोर है अंतर्मन का कैसी ये झनकारे हैं
जैसे माँ ने सब बर्तन .....मेरे सर दे मारे हैं..
जैसे माँ ने सब बर्तन .....मेरे सर दे मारे हैं..
धूप गयी न बादल आये ,कौन नदी कि प्यास बुझाये
जंगल के सारे पपिहाँ आज बोल बोल कर हारे हैं..
क्या कहूं किस डाल पर दिल अपना मैं रखकर भूली
सारा ही जंगल समेटे ये दो मृग नयन तुम्हारे हैं
रात में परदेशी बादल , छप्पर छप्पर चलकर आया
पर्वत के सिर से न जाने कौन गगरिया तारे है
पर्वत के सिर से न जाने कौन गगरिया तारे है
उनकी जात-पात खुली ,इंसानियत कि आँख न रोई
राधा को बनवास हुआ ,अब मोहन किसे पुकारे है
चलते चलते हारा जीवन और बोला अभिलाषाओं से
अब दो गज धरती मेरी है बाकि सब आकाश तुम्हारे हैं
- वन्दना
चलते चलते हारा जीवन और बोला अभिलाषाओं से
ReplyDeleteअब दो गज धरती मेरी है बाकि सब आकाश तुम्हारे हैं
बहुत भाव मयी रचना
बहुत सुन्दर ग़ज़ल!
ReplyDeleteसभी अशआर अच्छे लगे!
hue n ... bahut hi bhaw bhare azal bane
ReplyDeleteवाह्……………हर शेर लाजवाब्……………शानदार गज़ल्।
ReplyDeleteआपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (04.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:-Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
स्पेशल काव्यमयी चर्चाः-“चाहत” (आरती झा)
हो तो गई गज़ल...और क्या प्राण ले लेंगी. :)
ReplyDeletewaah bahut khub...maa ne saare.....bartan de maare hai.....bhut achi rachana
ReplyDeleteबहुत खूब..बहुत भावपूर्ण..अंतिम शेर तो लाज़वाब....
ReplyDeleteह्रदय के विवश भावों को बहुत सुन्दरता से उभारा है …….
ReplyDeleteबहुत उम्दा अभिव्य्क्ति है जैसे किसी ने गुलाब से लब छू लिए हों। आपकी गज़लो मे सुबह का उजास है
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