Thursday, September 2, 2010



हर एक झंकार कि कीमत को घूँघरू समझता है
ये पैर इस पायल कि अदब ओ आबरू समझता है

फकत इनकी ही बेजुबाँनी समझता नहीं कोई
ये अश्क सांसो से हवाओं कि सब गुफ्तगू समझता है

इसकी अपनी ही रवानी है अपना ही सफ़र है
ये दिल मेरा कहाँ जिंदगी कि दू ब दू* समझता है

पलकों कि सरहद के उस तरफ कि तीरगी में
महज एक जुगनू इन अंधेरो कि आरजू समझता है

जिगर कि हर खराँच को महरूमियत से भर देता है
वो जज्बातों के फटे पहरन पर हुनर ए रफू समझता है

मैं हर बार खुद को हारकर अपने अहम् से जीत जाता हूँ
कि शायद वो मेरी हर एक खामोश जुस्तजू समझता है

दू ब दू*= भागदौड

vandana

13 comments:

  1. वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

    आपको और आपके परिवार को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

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  2. कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

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  3. पलकों कि सरहद के उस तरफ कि तीरगी में
    महज एक जुगनू इन अंधेरो कि आरजू समझता है

    जिगर कि हर खराँच को महरूमियत से भर देता है
    वो जज्बातों के फटे पहरन पर हुनर ए रफू समझता है

    मैं हर बार खुद को हारकर अपने अहम् से जीत जाता हूँ
    कि शायद वो मेरी हर एक खामोश जुस्तजू समझता है



    क्या खूब लिखा है... एक एक शब्द एक एक तसव्वुर को पैदा कर रहा है
    बहुत ज़बरदस्त लिखती हैं आप, बधाई

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  4. बेहतरीन रचना.

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  5. बहुत अच्छी ग़ज़ल!

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  6. आप की रचना 03 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/266.html


    आभार

    अनामिका

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  7. उम्दा है ,बधाई

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  8. जिगर कि हर खराँच को महरूमियत से भर देता है
    वो जज्बातों के फटे पहरन पर हुनर ए रफू समझता है

    मैं हर बार खुद को हारकर अपने अहम् से जीत जाता हूँ
    कि शायद वो मेरी हर एक खामोश जुस्तजू समझता है

    tum to gazal likhne mein expert hoti jaa rahi ho.....good one

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  9. bahut bahut shukriyaa tahe dil se aap sabhi :)

    thanks a lot :

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  10. फकत इनकी ही बेजुबाँनी समझता नहीं कोई
    ये अश्क सांसो से हवाओं कि सब गुफ्तगू समझता है

    good one..

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  11. बहुत दिनों से दिल में तमन्ना थी कि कोई ऐसी कविता पढूं जो कुछ अलग सी हो... आज वो कविता (शायरी) मिल गयी

    इस तोहफे के लिए दिल से शुक्रिया

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  12. कई पंक्तियाँ पढ़कर मन आनंदित हुआ

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...