गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Wednesday, March 3, 2010
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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जितना खुद में सिमटते गए उतना ही हम घटते गए खुद को ना पहचान सके तो इन आईनों में बँटते गये सीमित पाठ पढ़े जीवन के उनको ही बस रटत...
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वफायें ..जफ़ाएं तय होती है इश्क में सजाएं तय होती हैं पाना खोना हैं जीवन के पहलू खुदा की रजाएं.. तय होती हैं ये माना... के गुन...
achcha khayal hai.
ReplyDeleteतेरे तसव्वुर को सुलझाने में........हम खुद से उलझ बैठे है,\वाह बहुत खूब। शुभकामनायें और कागज़ पर क्या उतरेगा इस का इन्तज़ार रहेगा।
ReplyDeleteलाजवाब ...
ReplyDeleteतेरे तसव्वुर को सुलझाने में........हम खुद से उलझ बैठे है,
ReplyDeleteशायद आज फिर एक गिरह नज्म बनके कागज पर उगेगी.
bahut khoob
too good....
ReplyDeletehttp://fervent-thoughts.blogspot.com