Saturday, February 6, 2010

एक कमजोर लम्हा



आज मैं खुद से रूठ जाऊं
तो मुझको मनाये कोई
मैं फूटकर रोना चाहती हूँ
काँधे से अपने लगाये कोई ...
.

ये तन्हाई मुझको
अपनी गिरफ्त में ले बैठी
मुझे ...इस कैद से ....छुडाये कोई .....

मैं आज बिलखूँ..पैर पटक कर
रोते किसी जिद्दी बच्चे कि तरह
मुझे बांहों में लेके .
दिलासों से ही बहलाए कोई ...

खुद को समेट कर बाँधा है
हिम्मत कि एक नाजुक सी डोर से
डर लगता है टूट ना जाये
शायद मुझे समेट ना पाए कोई
.
घेर लेते है जाने क्यूं बेवजह कि उदासियो के घेरे
कोई पूछे आँखों कि नमी का कारन ..
गिरते अश्क जमी से उठाये कोई ...
.
जी करता है आज इन कमजोर लम्हों को
एक बार फिर अपने पागलपन से जीत लूं ...
...
मैं हंस लूं आज किसी पागल कि तरह
मुझे देख कर यूँ ही मुस्कुराये कोई ..

9 comments:

  1. ...बहुत सुन्दर,प्रसंशनीय !!!

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  2. बहुत सच लिखा है .... कभी कभी मन उदास हो जाता है और सच में ये लगता है की कोई उसको भींच ले ..... और बस किसी का कंधा यूँ ही मिलता रहे .... बहुत अच्छी रचना है .......

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  3. bahut bahut shukriya aap sabhi ka yahan tak aane k liye ...:)

    thanks a lot

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  4. wow.........bahut sahi tashan ja raha hai...bahut sunder ....keep it up

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  5. so nice creation... kafi sunder likha aapne... dil ko chu gayi rachna...

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  6. Arre kyon ro rahi ho??? hehehhe

    bahut hi khoobsurat hai nazm.... :)

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  7. इस कैद से ....छुडाये कोई .....
    नाजुक सी कविता ...दिल को छू जाने वाली...हसरतों का खूबसूरत इजहार....

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...