Saturday, November 7, 2009

जिन्दगी के साथ चलते ...
ख्वाबो के सुनहरे जग मगाहतो में
एक खूबसूरत से मोड़ पर ...
मैंने जिन्दगी से नजर चुराई ...
कहा ..ऐ जिन्दगी तू चल मैं आई..
जिन्दगी चलती रही पीछे मुड़कर भी न लखाई (देखा) ,,
वो भ्रम के थे उजाले जाने कहाँ खो गए....
खुद को मैंने अंधेरो में घिरा पाया ...
मैं सहमी जरा घबराई ....
मैंने फिर जिन्दगी को आवाज लगाईं....
वो न ठहरी....मैंने ही रफ़्तार बढाई ...
मुझे फिर साथ पाकर वो मुझ पर हंसी ,
मैंने भी सांस ली ...वो मुस्कुराई ...
तब एक बात अक्ल में आयी ....
जिन्दगी क्या है ये समझने के लिए
शायद ये पागलपन जरूरी था ...






7 comments:

  1. मुझे फिर साथ पाकर वो मुझ पर हंसी ,
    मैंने भी सांस ली ...वो मुस्कुराई ...
    तब एक बात अक्ल में आयी ....
    जिन्दगी क्या है ये समझने के लिए
    शायद ये पागलपन जरूरी था ..

    bhai wah bahut umda likha hai.

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  2. जिन्दगी क्या है ये समझने के लिए
    शायद ये पागलपन जरूरी था ...

    Wow ! kya study kiya hai life ko.....abhi se....Ye pagalpan hona bahut zaroori hai

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  3. bahut khub ... kafi suder rachna..

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  4. This comment has been removed by the author.

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...