तुम्हे जिस सच का दावा है 
वो झूठा सच भी आधा है 
तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती 
जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं 
कोरे मन पर महज़ लकीरें हैं 
लिख लिख मिटाती रहती हो 
एक बार पढ़ क्यूँ नहीं लेती
उलझी सोचों के डोरे हैं 
ये किस चाल के मोहरे हैं 
ये जंग ए किरदार है तो फिर 
ये एलान कर  क्यूँ नहीं देती 
 आईने सिर्फ आईने  हैं 
ये नजरिया सिर्फ दिखाते हैं 
तुम अपने मुताबिक अक्स अपना 
गढ़ क्यूँ नहीं लेती 
बिखर रहा है आखों में 
उम्मीदों का टूटा हार 
मोती ये अनमोल है तो 
अंजुरी भर क्यूँ नहीं लेती 
किसका कितना हिस्सा तुझमे 
किसकी भागीदारी कितनी 
यूँ रिश्तों में बंटने से पहले 
खुद में अपना भी एक हिस्सा 
कर क्यूँ नहीं लेती 
~ वंदना 

 


