गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Saturday, September 26, 2009
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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जितना खुद में सिमटते गए उतना ही हम घटते गए खुद को ना पहचान सके तो इन आईनों में बँटते गये सीमित पाठ पढ़े जीवन के उनको ही बस रटत...
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वफायें ..जफ़ाएं तय होती है इश्क में सजाएं तय होती हैं पाना खोना हैं जीवन के पहलू खुदा की रजाएं.. तय होती हैं ये माना... के गुन...
good one.. first one is fabulous .....keep writing :-)
ReplyDeleteतिजारत कि इस दुनिया में ,अब कैसे प्रीत के मेले,,
ReplyDeleteके मोहब्बत हो गई सस्ती ..
सह-सहके तकाजे दुनिया कि फरेबी निगाह्नो के.
bahut khoob.
बहुत सुंदर कविता है मजा आ गया पढ़कर
ReplyDeleteसंजीव कुमार बब्बर
बहुत अच्छा लिख रही हो
ReplyDeleteअगर पोस्ट करने से पहले थोड़ी मेहनत हो जाये
तो सोने में सुगंध आने लगे
लुटाई है मैंने हस्ती तड़पते दिल कि आँहों पे ...
ReplyDeleteबहुत अच्छे।।
doosri kavita bahut jyada pasand aayi mujhe...
ReplyDeletebahut khub wakae shandar..
ReplyDeletevery nice :)
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteWord selection ka jawab nahi...mere se kyun nahi hota aisa selection...hunh!! :P
ReplyDeleteKool hai ji...!;)