वो सागर से दो नयना ....
किसी चंचल हिरन की तरेह ......कस्तूरी को ढूंढते ,
जो लागे है बड़ी प्यारी मगर समझ में नही आती ....
मुझे दो परिंदों की जैसे वो गुफ्तगू सी नजर आयी ,
उन नैनो में बेचैनिया थी
या कोई अधूरा सा सकून था
एक सांचा आईना थे वो
या मेरी आँखों का जूनून था
मैं अनपढ़ कवाल कोई ......और वो
गजल की जैसे एक किताब नजर आयी
गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Thursday, May 21, 2009
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...

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खुद को छोड़ आए कहाँ, कहाँ तलाश करते हैं, रह रह के हम अपना ही पता याद करते हैं| खामोश सदाओं में घिरी है परछाई अपनी भीड़ में फैली...
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बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती .. बादलो से अपनी बहुत बनती है, शायद इसी जलन...
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बरसों के बाद यूं देखकर मुझे तुमको हैरानी तो बहुत होगी एक लम्हा ठहरकर तुम सोचने लगोगे ... जवाब में कुछ लिखते हुए...
Waah Vandana....naynon ki bhasha bakhubi vyakt ki hai aapne.
ReplyDeletesunder rachna.
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