Saturday, August 24, 2013

ग़ज़ल



पथराई सी आँखों मे आँसू बो रहा है 
मुझमे न जाने कौन बैठा रो रहा है

 मुझसे ये मेरे ही वजूद कि लड़ाई है 
मैं उसको और  वो मुझे  खो रहा है

करीब आती हुई मंजिलों का क्या करूँ 
की मेरा जूनून ऐ सफ़र खो रहा है 

न बाकी है दरिया में अब हलचल कोई 
प्यासी मछलियों का दमन हो रहा है 

हम कटते हुए शज़र पे छाँव को रोये 
 दुःख उस परिंदे का जो बेघर हो रहा है 


धुंधलाने पे आ गया है अब वही चेहरा 
एक उम्र आँखों के खामेजां  जो रहा है 

लरजती गरजती हवाओं से ये कह दो 
 बादल कि गोद में आज महताब सो रहा है 


चल ही गये अपनी भी दुआओं के सिक्के 
मुरादों में हमारी भी अब असर हो रहा है 


वंदना 





Wednesday, August 21, 2013

इश्क मुझे मुकम्मल चाहिए था





 मौन के विस्तार में 
सिमटी रफाकत कि तहरीरे 

सच्ची तस्वीरों के 
झूठे भेद 

जज्बातों की 
 कच्ची बुनियाद में धँसे हुए 
सपनो के शीशमहल 

दिल की बेजुबानियों में 
कैद ये  सरगम 

आँखों की कोर से 
नाउम्मीद ताकते अहसास 

मुझमे पल पल 
जीती मरती 
यादों के बवंडर 


इश्क की  परिभाषा मांगते हैं

और मैं हँस  देती हूँ 
सिर्फ यही सोचकर 
इश्क मुझे मुकम्मल चाहिए था 




-वंदना 











Saturday, August 17, 2013

त्रिवेणी


इतनी आसानी से गहराते नही हैं 
चढ जायें तो उतारे जाते नही हैं 

कुछ रंग जिन्दगी के कैनवस पर !

- वंदना

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...