क्या जाने क्यूं इस तरह मूह मोड़ने लगा कोई
जैसे बिलखते बच्चे को अकेला छोड़ने लगा कोई
खुद को बहलाने कि वो अपनी तमाम कोशिशे
जैसे टूटे हुए एक खिलौने को जोड़ने लगा कोई
वो हर जज़्बात जिसकी जड़े रगों तक फैली हैं
जैसे रूह से एक एक सब किरोदने लगा कोई
हंसी चेहरे पे गुलाब सी मानो उधार थी उसका
उस फूल कि हर पंखुड़ी अब नोचने लगा कोई
जिंदगी से ऐसा भी ... कोई वादा तो नहीं था
फिर भी जीने के लिए कफ़न ओढने लगा कोई