गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Friday, June 1, 2012
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...

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बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती .. बादलो से अपनी बहुत बनती है, शायद इसी जलन...
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इन सिसकियों को कभी आवाज मत देना दिल के दर्द को तुम परवाज मत देना यहाँ अंदाज ए नजर न तुझे तेरी ही नजर में गाड़ दे भूलकर भी किसी को ...
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वफायें ..जफ़ाएं तय होती है इश्क में सजाएं तय होती हैं पाना खोना हैं जीवन के पहलू खुदा की रजाएं.. तय होती हैं ये माना... के गुन...
इस तरह भी ये जिन्दगी .अक्सर मिली हमसे
ReplyDeleteमुर्ख बताकर द्रोपदी जैसे दुर्योधन पर हँसती है
...वाह
सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत खूब वंदना जी
ReplyDeleteबहूत जादा रोशनी भी आंखो को चुभती है...
ReplyDeleteबहूत हि बेहतरीन बात कही है..
लाजवाब:-)
सुंदर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब।
ReplyDeleteoho...kya analogy hai...2nd one is too good :)
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