गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...
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जितना खुद में सिमटते गए उतना ही हम घटते गए खुद को ना पहचान सके तो इन आईनों में बँटते गये सीमित पाठ पढ़े जीवन के उनको ही बस रटत...
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ख़ामोशी कभी बन जाते हैं कभी सन्नाटों में चिल्लाते हैं अजीब हैं लफ़्ज़ों के रिश्ते !! - वंदना
सबकी एक सी गति
ReplyDeletesundar
ReplyDeleteबेहतरीन भाव ...
ReplyDeleteगंभीर घाव करती पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत खूब ... लाजवाब ...
ReplyDeleteबहुत श्रेष्ठ और सटीक!
ReplyDeletebaat gahri to hai ...
Deleteसही कहा आपने ..जिंदगी हर पल रंग बदलती है ..
ReplyDeleteजिंदगी की खुशियाँ
दामन में नहीं सिमटती
ऐ मौत ! आ
मुझे गले लगा ले ...
जितना भी सुल्झाते हैं इसे
ReplyDeleteऔर उलझती है ज़िन्दगी !
बहुत सुंदर वंदना जी