जब सुअम से अनजान थी तो समझदार कहलाती थी , खुद की परख ने हमें पागल बनाया है
जिन्दगी तो हंसकर जलाती रही , तजुरबो ने अब चलना सिखाया है
ऐ आस्मां इन बदलियों से कहदे .. मेरी अटरिया से होकर न गुजरे
समंदर की लहरों से अब मैंने रिश्ता बनाया है
मिटाकर खुद को कागज की कश्ती की तरह
मैंने खुद को दुआ की तरह पाया है..
गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
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तुम्हे जिस सच का दावा है वो झूठा सच भी आधा है तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं कोरे मन पर महज़ लकीर...

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खुद को छोड़ आए कहाँ, कहाँ तलाश करते हैं, रह रह के हम अपना ही पता याद करते हैं| खामोश सदाओं में घिरी है परछाई अपनी भीड़ में फैली...
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बंद दरिचो से गुजरकर वो हवा नहीं आती उन गलियों से अब कोई सदा नहीं आती .. बादलो से अपनी बहुत बनती है, शायद इसी जलन...
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बरसों के बाद यूं देखकर मुझे तुमको हैरानी तो बहुत होगी एक लम्हा ठहरकर तुम सोचने लगोगे ... जवाब में कुछ लिखते हुए...
तजुरबो ने अब चलना सिखाया है,
ReplyDeleteमैंने खुद को दुआ की तरह पाया है.
padh kar accha laga vandana!