गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Friday, November 30, 2012
Saturday, November 24, 2012
दिल कि जमीं पे अब कोई सहरा नही चाहिए !
इस रात का अब हमें सवेरा नही चाहिए
तू सूरज है तो उजाला तेरा नही चाहिए
जो न हो दिल में चेहरे पे अच्छा नही लगता
रफाकत में रंजिशों का पहरा नही चाहिए
ये दिल वो पर कटा एक परिंदा है जिसे
आसमानों का कोई अब फेरा नही चाहिए
कमजोर बनाता है ये दीदार ए चाँद हमें
नींदों में अब कोई रैन बसेरा नही चाहिए
जिया है हमने टूटते हुए हर भरम को
पलकों पे कोई ख़्वाब सुनहरा नही चाहिए
इबादत कि है दिल से तो पहुंचेगी जरूर
टूटकर गिरता हुआ ये तारा नही चाहिए
वो आँखे ही काफी थी खुदखुशी के लिए
इस जन्म तो दूसरा अब झेरा नही चाहिए
चल जिन्दगी तुझे अब बागबानी सिखाते हैं
दिल कि जमीं पे अब कोई सहरा नही चाहिए !
वंदना
Tuesday, November 20, 2012
ग़ज़ल
हो जाए ऐसा खुदा न खास्ता तो
याद आये भूला हुआ रास्ता तो
नींदों में हमें है चलने कि आदत
अगर शिद्दत से वो पुकारता तो
खामोशियों को जुबां हमने जाना
कयामत ही होती गर बोलता तो
होता यूँ के टूटते बस भरम ही
गर जाते में उसको टोकता तो
उसी कि नजर का जवाब हम थे
आईने में खुद को निहारता तो
मर के भी मैं जी उठूंगा शायद
दिया अपना जो उसने वास्ता तो
Monday, November 12, 2012
ग़ज़ल
चलो जिंदगी को आसान कर लेते हैं
खुद पर आज इक एहसान कर लेते हैं
एहसासों को जुबाँ फिर मिले न मिले
एक बार ख़ामोशी को अज़ान कर लेते हैं
मोहब्बत के सजदे तो महंगे बहुत हैं
समझोतों को जीने का सामान कर लेते हैं
इस पिंजर में एक परिंदा सर पटकता है
दिल की जमीं पे एक आसमान कर लेते हैं
देकर रिहाई इस दिल ए गुनहगार को
इसी सजा को अपना ईमान कर लेते हैं
याद नही है तहरीर ए वजूद भी अब तो
सोचते थे इश्क को पहचान कर लेते हैं
- वंदना
Sunday, November 4, 2012
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