गीत, ग़ज़ल, नज्म ..ये सब मेरी साँसों कि डोर, महंगा पड़ेगा बज्म को मेरी खामोशियों का शोर ! --- "वन्दना"
Monday, January 31, 2011
Saturday, January 29, 2011
Wednesday, January 26, 2011
फिजूल बातें
बहुत बोलती हैं ये नज्मे ..
ये ग़ज़ल ये तहरीरे ...
मुझसे भी कहीं ज्यादा
..
जिस तरह तुम्हारी
एक छोटी सी हम्म पर
आकर खत्म हो जाती थी
मेरी लम्बी लम्बी वो फिजूल बाते
बस उसी तरह
खामोश करना चाहती हूँ इन्हें मैं
मगर नहीं लेती चुप होने का नाम !
तो न चाहते हुए भी
समेटती हूँ अंतर्मन के शोर को
बिना रुके word pad पर
आखिरकार जब वो शांत हो जाती है
तो झट से Ctrl and dlt
सब खत्म ..
ना बोझ दिल पर
न दिमाग पर .
..
ठीक तुम्हारी ही तरह !!
Monday, January 24, 2011
सवेरा
सवेरा फूटकर बिखरे और संवर जाने लगे
खिडकी पर धूप कि जब शुआ* आने लगे
नींद कि आगोश में कुल्मुलाती अंगडाई
सुनहरे से ख़्वाब से जब जगाने लगे
नयी उम्मीद ..नयी उमंग.. नए सपने
बनके सूरज पलकों पर ठहर जाने लगे
हल होने लगे घडी कि टिक टिक का हिसाब
वक्त कि कसौटी जब समझ आने लगे
कमरे कि हर एक बनावटी सी चीज़
सजीवता का जब एहसास दिलाने लगे
देखकर सूरत एक जानी पहचानी सी
आईना जब अपने आप में मुस्कुराने लगे
गिर गिर कर सँभलने का हुनर आने लगे
चलो , कि जब जिंदगी कदम बढ़ाने लगे
शुआ = किरन
-वन्दना
1/1/11
Saturday, January 22, 2011
ग़ज़ल
यादो के नगर में ये कौन आ गया
दिल पर ये कैसा कोहरा छा गया
ढूंढते हो जिसे इन मैली घटाओ में
उस चाँद को रातो का अँधेरा खा गया
तुमको तुम्हारा ये गुरूर मुबारक रहे
हमको समझ हमारा कुसूर आ गया
रहेगा मलाल सदा बस इसी बात का
किस नजर से मेरी नजर को देखा गया
उन आँखों से पिया है जहर मैंने
तिल तिल मरना अब मुझे भा गया
वन्दना
Monday, January 17, 2011
ग़ज़ल
हुई भूल जो ख्वाबो ने ज़मी माँग ली,
पलकों पे उम्र भर की नमी माँग ली !
देखकर बदलता मिजाज़ ए जिंदगी,
मासूमियत ने अब सरकशी माँग ली !
मंजूर है रातों को अब ,वीरान आसमां ,
उस चाँद कि हमने भी कमी माँग ली !
जायेंगे जहाँ लेकर जायेगी जिंदगी ,
नजाकत ए वक्त की बंदगी माँग ली !
तहरीर ए जब्त को बोलना आ गया ,
हमने जबसे ग़ज़ल की पैरवी माँग ली !
सरकशी = rudeness
Tuesday, January 11, 2011
कारवाँ ए दिल जहाँ डूबता उबरता सा रहता है

सीने में इस तरह से कुछ सुलगता सा रहता है
दिया बुझ-बुझ के हवा में जैसे जलता सा रहता है
है आखिर कौन ये परिंदा जो मुझमे बस गया
इस कफस में हर घडी क्यूं तडपता सा रहता है
मुझे मंजूर नहीं इस तरह मेरे वजूद का गमन ,
क्यूं मुख्तलिफ * मेरा जीता मरता सा रहता है
ये सच है के ख्यालो को मेरे आसमां मिल गया
मगर जमीं के लिए ये दिल तरसता सा रहता है
इन शब्दों से खेलकर मैं फ़साना बुनती रही हूँ
हर लफ्ज अब मेरा मुझे ही पढता सा रहता है
मोहब्बत फकत* उस एक गहराई का नाम है
कारवाँ ए दिल जहाँ डूबता उबरता सा रहता है
ये एक खामोश दरिया है बचकर निकलना
इसकी गोद में एक तूफां पलता सा रहता है
मुख्तलिफ = diffrent और against
"वन्दना "
Thursday, January 6, 2011
बोलती नज्मे ..
कभी कभी .
एक खामोश से सफ़र में
गुजरता है जब दिल
तंग गलियों से ..
जहाँ.एहसासों के नासूर
बिखरे पड़े हैं .
निकलता है बचकर आजकल
सँभल कर चलने का
अदब आने लगा है शायद
मगर वो पुराने सूखे हुए
नासूर.. घातक है
चुभ ही जाते हैं !
सिहर उठती है रूह ..
.चींख निकलती है उस हर
बेबोलती टीस के मूँह से ...
जब सुनती हूँ कान दबाए तो
ऐसे में मौन हो जाती हूँ ..
कुछ देर के लिए ,
दिन गुजरता है मेरा
इसी ख़ामोशी के साथ ..
तब बौलती है अक्सर ये नज्मे
एक सच्चा झूठ ...
और तुम्हे तो पता है,
सच कितना कड़वा होता है !!
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