''सितारों की इस महफिल में चाँद तन्हा सा क्यूं है ...खामोश है लेकिन इसके होठो पर ये शिकवा सा क्यूं है ''.....
ये चाँद मेरी खिड़की पर टकटकी लगाये बैठा है ...
मैं रह- रह कर नजर चुराती हूँ ,ये नजर जमाये बैठा है
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कैसे इसका एतबार कर इसका दीदार करूँ
कैसे मिलाऊं नजर मैं इससे ..कैसे आँखे चार करूँ
ये कहाँ कब एक दर ठहरा है
हर नगर....हर आटारी ..हर दर पे इसका पहरा है
पागल है आवारा है ......घायल दिल बेचारा है
दिखता है महफिल की शान ...मगर तन्हाई का मारा है
जाने किसकी खातिर इन चांदनी रातो के रत जगे सजाये बैठा है
ये चाँद मेरी खिड़की पर टकटकी लगाये बैठा है
मैं रह -रह कर नजर चुराती हूँ ,ये नजर जमाये बैठा है
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ना मैं मिलाऊँगी नजर इससे खाकर कसम मैंने खुद को रोका है
फूंकेगा कोई जादू टोना.................इसका क्या भरोसा है
जाने कितने मासूम दिलों से चुपके चुपके बतियाता है
जाने कितने तन्हा दिलों को झूठे सन्देश सुनाता है
कर देता है नींदें बंजर ...रातो में जगना सिखाता है
देता है झूठे दिलासे ........झूठे ख्वाब दिखाता है ...
इस उजले से मुख पर जाने कितने दाग छुपाये बैठा है
ये चाँद मेरी खिड़की पर टकटकी लगाये बैठा है
मैं रह -रहकर नजर चुराती हूँ ये नजर जमाये बैठा है
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शायद किसी की तलाश में ही ये चार दिन उजाली लाता है
किसी के इन्तजार मे आसमां में एक महफिल सजाता है
होता है जब निराश बेचारा ..तो जाने कहाँ छुप जाता है
होता है गम गीन अँधेरा ..सारा आलम उदास हो जाता है
टूटता है दिल इसका भी ये भी अश्क बहाता है
पागल है धरा भी इसके अश्को को इस तरह संभालती है
पत्ति पत्ति पर बिखरी इसके अश्को की बूंदे ही शबनम कहलाती है
शायद अपनी इसी सोहरत पर इतना इतराए बैठा है
ये चाँद मेरी खिड़की पर टकटकी लगाये बैठा है
मैं रह - रह कर नजर चुराती हूँ ये नजर जमाये बैठा है
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ये चाँद मेरी खिड़की पर टकटकी लगाये बैठा है ...
मैं रह- रह कर नजर चुराती हूँ ,ये नजर जमाये बैठा है