Friday, November 30, 2012

त्रिवेणी

  



कुछ सुलझाने में उलझ गया ,कुछ उलझ उलझ कर सुलझ गया 
 
मुट्ठी की रेत फिसल गयी ...आँखों का दरिया उतर गया 


जिंदगी  थी जो ठहरी रही ......वक्त था सो  गुजर गया  !!



वंदना  










7 comments:

  1. आहा वाह बहुत खूब उम्दा रचना

    अरुन शर्मा
    www.arunsblog.in

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    दो दिनों से नेट नहीं चल रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। आज नेट की स्पीड ठीक आ गई और रविवार के लिए चर्चा भी शैड्यूल हो गई।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (2-12-2012) के चर्चा मंच-1060 (प्रथा की व्यथा) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

    ReplyDelete
  3. वक़्त कब ठहरा है किसी के लिये...
    ज़िंदगी फिसलती ही जाती है हाथों से...
    रेत की मानिंद...
    ~सादर!!!

    ReplyDelete
  4. बहुत अच्छी कविता |वंदना जी बधाई |

    ReplyDelete

तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...